जम्मू-कश्मीर का खजाना खाली!

पवन शर्मा
स्पेशल कोरसपोंडेंट
केन्द्र सरकार ने केंद्रीय कर्मचारियों के डीए को बढा़कर 8 फीसदी कर एक तरफ कर्मचारियों को खुश किया है तो वहीं जम्मू-कश्मीर सरकार ने अपने कर्मचारियों को निराश किया है। जम्मू-कश्मीर विधानसभा के बजट सत्र में राज्य के वित्त मंत्री अब्दुल रहीम राथर ने जब विधानसभा में बजट रखा तो जम्मू-कश्मीर के अपने कर्मचारियों के लिए कुछ नहीं रखा। वजह साफ है कि जम्मू-कश्मीर का खजाना खाली हो चुका है। गौरतलब है कि राज्य सरकार के कर्मचारी पिछले काफी समय से अपने बकाया वेतन और डीए को बढ़ाने की मांग के लेकर धरना प्रदर्शन करते आ रहे हैं। कई बार इन कर्मचारियों ने सामूहिक हड़ताल भी की लेकिन सरकार के कान पर जूं तक नही रेंगी।
जम्मू-कश्मीर विधानसभा में जब वित्त मंत्री अब्दुल रहीम राथर यह कह रहे थे कि रियासत की माली हालत कर्मचारियों का बकाया वेतन, एरियर और भत्ता भुगतान करने की इजाजत नहीं देती, तब पौने पांच लाख कर्मचारी सिर पर हाथ रखकर बैठ गए। यह सभी कर्मचारी इस बार सरकार के बजट से कई उम्मीदें लगाए हुए थे कि शायद उनकी मांगों को सरकार नजर में रख कर कोई कदम उठाएगी लेकिन हुआ उसके विपरीत। सभी कर्मचारी अपने आप को ठगा सा महसूस कर रहे हैं और वो भी अब जब केन्द्र सरकार ने केन्द्रीय कर्मचारियों को एक बड़ा तौहफा डीए के रूप में दे दिया है।

13वें वित्त आयोग ने अपनी अनुशंसा में साफ ताकीद की है कि छठे वेतन आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद मुलाजिमों को देय 4,200 करोड़ रुपये का तत्काल भुगतान नुकसानदायी होगा। इसमें कोई शक नहीं है कि राज्य की माली हालत इस समय पतली हो चुकी है और इसकी वजह आतंकवाद है जिसके चलते कई उद्योग ठप्प पड़े हैं और पर्यटकों की संख्या में लगातार गिरावट आंकी जा रही है। कृषि क्षेत्र की बदहाली, कश्मीर आने वाले पर्यटकों की कम होती संख्या और भ्रष्टाचार ने केंद्रीय अनुदानों पर राज्य की निर्भरता बढ़ा दी है। चंद दिन पहले पास किए गए राज्य सरकार के बजट में वर्णित आंकड़े बता रहे हैं कि केंद्रीय अनुदान और केंद्रीय करों में हिस्सेदारी ही राज्य सरकार की आय का 70 फीसदी हिस्सा है। खर्च होने वाले एक रुपये में सिर्फ 30 पैसे राज्य सरकार की अपनी कमाई होती है।

विकास योजनाओं से लेकर वेतन तक के लिए राज्य सरकार को केंद्र की ओर टकटकी लगाकर देखना पड़ रहा है। हालांकि इसी सबके बीच राज्य सरकार को कई बार बैंकों व बोर्डों से मदद भी मिलती है। साफ तौर पर कहा जाए तो जम्मू-कश्मीर बैंक और माता वैष्णो देवी श्राईन बोर्ड ने कई बार राज्य सरकार के कर्मचारियों को वेतन देने के लिए मदद भी की है। यह बात अलग है कि यह पैसा उधार के तौर पर लिया गया है।

पिछले साल केंद्र सरकार ने 5,500 करोड़ रुपये अनुदान दिया था जिससे खर्चा-पानी चलता रहा और विकास बोर्डों की बैठकों में खुले हाथ से मुख्यमंत्री ने पैसे दिए। इस साल यह अनुदान बढ़कर 6,000 करोड़ रुपये हो जाने की उम्मीद है। राज्य की आमदनी बढ़ने के लिए सीधे-सीधे कर थोपने से बचते हुए राज्य सरकार ने वैट में एक फीसदी और सर्विस टैक्स में दो फीसदी का इजाफा कर दिया। जाहिर है, महंगाई और बढ़ेगी। फिलहाल मसला कर्मचारियों की मांगों को तवज्जो देने का है।

बजट में खाद और कीटनाशक दवाओं पर से टोल टैक्स हटाया गया है ताकि किसानों को फायदा हो। मगर यह किसी को याद नहीं कि हर साल कंडी क्षेत्र के किसान समय पर और पर्याप्त खाद न मिलने के कारण कराहते हैं। रियासत में 12 फीसदी कृषि भूमि बंजर पड़ी है। पर्यटन क्षेत्र से होने वाली आमदनी में भी गिरावट दर्ज की गई है। साल 1988 में जब आंतकवाद ने सिर नहीं उठाया था, तब कुल 59,938 पर्यटक कश्मीर आए थे। जबकि 2008 में 22,000 पर्यटकों ने ही यहां का रुख किया। पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए राज्य सरकार करोड़ों रुपये खर्च कर रही है। ताजा बजट में भी होटल, लॉज और गेस्ट हाउसों को एक साल के लिए सेल्स टैक्स में रियायत दी गई है। लेकिन परिणाम आशाजनक होंगे, इसकी कोई गांरटी नहीं। हालांकि सरकार यही कह रही है कि इस बार पर्यटकों को यहां पर लाने के लिए कई योजनाए बनाएगी और पर्यटक स्थलों की देखरेख को ध्यान में रखेगी लेकिन इसके लिए भी बजट चाहिए होगा। साफ तौर पर कहा जाए की माली हालत कब सुधरेगी इसके बारे में कुछ भी पता नहीं लग पा रहा है।
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आँखों का नूर, बेनूर कर रहा पानी

लेखक: मीनाक्षी अरोड़ा



बिहार के भोजपुर जिले के बीहिया से अजय कुमार, शाहपुर के परशुराम,
बरहरा के शत्रुघ्न और पीरो के अरुण कुमार ये लोग भले ही अलग-अलग इलाकों के हैं, पर इनमें एक बात कॉमन है, वो है इनके बच्चों की आंखों की रोशनी। इनके साथ ही सोलह और अन्य परिवारों में जन्में नवजात शिशुओं की आँखों में रोशनी नहीं है। इनकी आँखों में रोशनी जन्म से ही नहीं है। बिहार के सबसे ज्यादा आर्सेनिक प्रभावित भोजपुर जिले में पिछले कुछ दिनों के अंदर 50 ऐसे बच्चों के मामले मीडिया में छाये हुए हैं जिनकी आँखों का नूर कोख में ही चला गया है।

मामला प्रकाश में लाने वाले आरा के एक विख्यात नेत्र विशेषज्ञ हैं- डॉ. एसके केडिया, जो कहते हैं कि "जन्मजात अंधापन के दो मामले लगभग छह महीने पहले मेरे अस्पताल में आये थे। उस समय मुझे कुछ गलत नहीं लगा था। लेकिन जब इस तरह के मामले पिछले तीन महीने में नियमित अंतराल पर मेरे पास आने शुरू हुए तो मुझे धीरे-धीरे यह एहसास हुआ कि यह एक नई चीज है, मेरे 20 साल के कैरियर में जन्मजात अंधापन के मामले इतनी बड़ी संख्या में कभी नहीं आये थे।“

भोजपुर के लोग अपने नवजात शिशुओं को लेकर डरे सहमे से अस्पताल पहुँच रहे हैं। वे नहीं जानते कि उनका नन्हा सा बच्चा देख सकता है कि नहीं। क्योंकि शुरुआत में बच्चे में इस तरह के कोई लक्षण दिखाई नहीं देते कि वे देख पा रहे हैं या नहीं। लोग अपना जिला छोड़कर राजधानी पटना के अस्पतालों में भी बच्चों की जांच करा रहे हैं। वे अपने बच्चों के बारे में किसी समस्या को सार्वजनिक भी नहीं करना चाहते क्योंकि इससे उनके सामाजिक ताने-बाने पर भी असर पड़ेगा।

सरकार और उससे जुड़ी हुई विभिन्न स्वास्थ्य एजेन्सियां इस तरह के मामलों के पीछे का सही कारण पता करने में पूरी तरह असफल सिद्ध हुई हैं। लोगों को आशंका है कि इसके लिये पानी में मिला आर्सेनिक जिम्मेदार है। हालांकि भोजपुर के जिला सिविल सर्जन डॉ. केके लाभ कहते हैं कि मोबाइल फोन के टावरों से निकला इल्क्ट्रोमैग्नेटिक रेडियेशन भी बच्चों के अंधेपन का कारण हो सकता है। हम लोग सही कारण जानने की कोशिश कर रहे हैं। इस पूरे मामले में प्रमाणित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है पर एक चीज तो साफ है कि पर्यावरणीय प्रदूषण ही मुख्य कारण नजर आ रहा है।

अभी तक देखा गया है कि आर्सेनिक युक्त जल के निरंतर सेवन से लोग शारीरिक कमजोरी, थकान, तपेदिक, (टीबी.), श्वाँस संबंधी रोग, पेट दर्द, जिगर एवं प्लीहा में वृद्धि, खून की कमी, बदहजमी, वजन में गिरावट, आंखों में जलन, त्वचा संबंधी रोग तथा कैंसर जैसी बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं। पर गर्भ में ही बच्चों के अंधा होने की घटनाओं का होना एकदम नया मोड़ है।

भोजपुर, बिहार में सबसे अधिक आर्सेनिक प्रभावित जिलों में से एक है। पिछले साल बिहार में कराये गए एक सर्वे में 15 जिलों के भूजल में आर्सेनिक के स्तर में खतरनाक वृद्धि दर्ज की गई थी। आर्सेनिक प्रभावित 15 जिलों के 57 विकास खंडों के भूजल में आर्सेनिक की भारी मात्रा पायी गई थी। सबसे खराब स्थिति भोजपुर, बक्सर, वैशाली, भागलपुर, समस्तीपुर, खगड़िया, कटिहार, छपरा, मुंगेर और दरभंगा जिलों में है। समस्तीपुर के एक गाँव हराईछापर में भूजल के नमूने में आर्सेनिक की मात्रा 2100 पीपीबी पायी गई जो कि सर्वाधिक है। जबकि भारत सरकार के स्वास्थ्य मानकों के अनुसार पेयजल में आर्सेनिक की मात्रा 50 पीपीबी से ज्यादा नहीं होनी चाहिए और विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 10 पीपीबी से ज्यादा नहीं होना चाहिए।

पानी में मिला आर्सेनिक बिहार ही नहीं पश्चिम बंगाल, पूर्वी उत्तरप्रदेश, पंजाब सहित भारत के विभिन्न हिस्सों में लोगों की जिंदगी बर्बाद कर रहा है। आज पानी कहीं कैंसर तो कहीं बच्चों में सेरेब्रल पाल्सी, शारीरिक-मानसिक विकलांगता बाँट रहा है। माँ के गर्भ में ही बच्चों से आँखे छीन लेने वाले पानी की एक नई सच्चाई हमारे सामने आने वाली है। हालांकि यह सच अभी आना बाकी है कि असली कारण क्या हैं पर जो भी हैं वे पानी- पर्यावरण प्रदूषण के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ेंगे। लेकिन इसके साथ यह भी एक कड़वा सच है कि इन सब के पीछे इन्सान ही जिम्मेदार है।

हालात धीरे-धीरे ऐसे होते जा रहे हैं कि धरती की कोख सूनी होती जा रही है। जमीन के नीचे पानी काफी कम हो गया है और जितना पानी बचा है उसकी एक-एक बूँद लोग निचोड़ लेना चाहते हैं। धरती की कोख को चीर कर उसके हर कतरे को लोग पी जाना चाहते हैं। सरकारें और उनकी नीतियां नलकूप, बोरवेल, डीपबोरवेल लगा-लगाकर धरती की कोख से सबकुछ निकाल लेना चाहती हैं।

सूनी धरती, सूखी धरती से जब पानी बहुत नीचे चला जाता है तब पानी कम, खतरनाक केमिकल ज्यादा मिलने लगते हैं। तभी पानी में फ्लोराइड, नाइट्रेट, आर्सेनिक और अब तो यूरेनियम भी मिलने लगा है। जब पानी आसमान से बरसता है तब उसमें कोई जहर नहीं होता। जब बारिश का पानी झीलों, तालाबों, नदियों में इकट्ठा होता है तब हमारे पैदा किए गए कचरे से प्रदूषित हो जाता है। पहले पानी झीलों, तालाबों, नदियों से धरती में समा जाता था लेकिन अब पानी के लिये सारे रास्ते हम धीरे-धीरे बंद करते जा रहे हैं। धरती में पानी कम जा रहा है जितना हम डालते हैं उसका कई गुना निकाल रहे हैं। ऐसे में सूखी होती धरती की कोख अब अमृत रूप पानी नहीं जहर उगल रही है। धरती की खाली होती कोख जहर उगल रही है और माओं की कोख जन्मना अंधी संतानें। यह नहीं होना चाहिए, फिर क्या होना चाहिए?

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अमिताभ का बहिष्कार या दिवालियापन

[आशुतोष

मैनेजिंग एडिटर


लोग मुझे नरेंद्र मोदी का कटु आलोचक कहते हैं। लेकिन पिछले दिनों जब अमिताभ को कांग्रेस ने लपेट लिया तो अच्छा नहीं लगा। सवाल सिर्फ इतना सा है क्या इसी आधार पर कांग्रेस अमिताभ का बहिष्कार कर दे कि वो मोदी के साथ दिखे और गुजरात के ब्रांड एंबेस्डर बने? उनके साथ कांग्रेसी रिश्ता नहीं रखें? ये बात पचती नहीं क्योंकि बच्चन और नेहरू-गांधी परिवार 50 के जमाने से करीब रहे हैं। नेहरू जी हरिवंश राय और तेजी बच्चन की काफी इज्जत करते थे। इंदिरा गांधी के जमाने में तो ये भी कहा जाने लगा था कि अमिताभ का कैरियर ही सरकर की वजह से आसमान पर पहुंचा। लोग ये आरोप लगाते हैं कि इमरजेंसी के समय अमिताभ की फिल्मों पर खास मेहरबानी की गई। '84 में इंदिरा गांधी की मौत के बाद राजीव के कहने पर अमिताभ ने हेमवती नंदन बहुगुणा के खिलाफ इलाहाबाद से चुनाव लड़ा। अमिताभ का जलवा और इंदिरा की मौत से उपजी सहानुभूति का असर था कि बहुगुणा जैसे दिग्गज खेत रहे और फिर कभी उठ नहीं पाये। जीतने के बाद अमिताभ राजीव के और करीब आ गये लेकिन जब बोफोर्स के संदर्भ में अमिताभ का नाम उछला और कांग्रेस ने खुलकर उनका साथ नहीं दिया तो अमिताभ ने राजनीति को अलविदा कह दिया। साथ ही नेहरू के जमाने से चली आ रही दोनों परिवारों की दोस्ती भी खत्म हो गयी।

राजीव के जाने के बाद दूरियां और बढ़ गईं। अमिताभ का बनारस में दिया गया वो मशहूर बयान अभी भी याद है कि राजा और रंक के रिश्ते में रंक नहीं राजा ये तय करता है कि उसे रिश्ता रखना है या नहीं। उनका इशारा सोनिया की तरफ था और फिर कभी दोनों परिवार करीब नहीं आये। मुसीबत के दिनों में अमर सिंह ने अमिताभ की मदद की, कांग्रेस ने नहीं। ये वो दिन था जब लोग कहते हैं कि अमिताभ खुदकुशी के बारे में भी सोचने लगे थे। ऐसे में अमिताभ अमर सिंह का हाथ पकड़ कर समाजवादी पार्टी के साथ हो लिये। और अमिताभ के बावजूद अमर सिंह और मुलायम सिंह ने सोनिया का मजाक उड़ाने का कोई भी मौका नहीं गंवाया। और अब अमर सिंह समाजवादी पार्टी से बाहर हैं तो अमिताभ अनायास ही मोदी के साथ खड़े दिख गये जिनको सोनिया मौत का सौदागर बता चुकी हैं। ऐसे में ये सोचा जा सकता है कि अमिताभ जाने अनजाने उस राह पर दिखे जो नेहरू-गांधी परिवार के विरोध में है। हालांकि अमिताभ ने इस दौरान कभी भी राजनीति में सक्रिय नहीं रहे, वो एक के बाद एक बेहतरीन फिल्में करते रहे। उनकी पर्सनैलिटी कभी भी राजनीतिक व्यक्ति की नहीं रही और न ही उन्होंने कभी सोनिया और उनके परिवार के खिलाफ कोई टिप्पणी ही की लेकिन गांठ जो बनी रही उसे दरबारियों ने खूब हवा दी। 2004 के बाद के सभी सरकारी आयोजनों से अमिताभ का बहिष्कार किया गया। अमिताभ को फिल्म फेस्टिवल तक से दूर रखा गया।

ऐसे मे अशोक चव्हाण जब बांद्रा वर्ली सी लिंक मे फंक्शन में अमिताभ के साथ दिखे तभी लग गया अब बवाल होगा। अमिताभ को भी अंदाजा था तभी तो फंक्शन के एक दिन पहले उन्होंने अपने ब्लॉग में लिखा कि कल मैं महाराष्ट्र सरकार के एक कार्यक्रम में जा रहा हूं और मीडिया इसमे भी मीन मेख निकालेगा। मीन मेख निकला लेकिन मीडिया ने नहीं कांग्रेस ने निकाला। कांग्रेस ने साबित करने की कोशिश की कि अमिताभ मोदी के साथ हैं इसलिये अछूत हैं और अशोक चव्हाण का उनके साथ मंच पर रहना गलत है। ये सब बकवास है मोदी के साथ होने को सिर्फ बहाना बनाया गया है। हकीकत मे दोनों परिवारों के बीच बीस सालों से ज्यादा की कटुता ही इस हो-हल्ले का कारण है और एक कमजोर थोड़े अनुभवहीन मुख्यमंत्री को उसकी औकात बतायी गयी है कि ज्यादा मत उछलो, नहीं तो धूल मे मिला दिये जाओगो।

साथ ही मोदी का नाम लेकर कांग्रेस ने अपने मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति को और पुख्ता किया है। कांग्रेस पिछले दिनों लगातार उत्तर प्रदेश और बिहार के मद्देनजर मुसलमानों को अपनी तरफ लाने की पुरजोर कोशिश में जुटी है। और गुजरात दंगों के कारण कांग्रेस की नजर मे मोदी से बड़ा कोई मुस्लिम विरोधी फिलहाल देश मे है नहीं। और कांग्रेस ने बड़ी चालाकी से अमिताभ के बहाने मुसलमानों को संदेश दिया है कि जिसे वो मौत का सौदागर मानती है उसे वो कतई माफ करने को तैयार नहीं और वो कोई भी आदमी जो मोदी के साथ जुड़ेगा वो भी उनके लिये उतना ही बड़ा अछूत है चाहे वो कितना ही बड़ा शख्स क्यों न हो।

लेकिन क्या कांग्रेस के दरबारी इस सवाल का जबाव देंगे कि अगर अमिताभ अछूत हैं तो क्या गुजरात की वो जनता भी अछूत है जिसने मोदी को मुख्यमंत्री बनाने के लिये वोट दिया। क्या अमिताभ का नियम प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति और उनके उन मंत्रियों पर लागू नहीं होना चाहिये जो मोदी के साथ मंच शेयर करते हैं? क्या उस विधानसभा का भी बहिष्कार नहीं किया जाना चाहिये जहां मोदी जाते हैं और बैठते हैं और जहां कांग्रेस के विधायक मोदी के साथ बहस मे हिस्सा लेते हैं? क्या उस सड़क का, उस बिल्डिंग का कभी निषेध नहीं कर देना चाहिये जहां मोदी रहते और गुजरते हैं? ये पागलपन है। और इसे खत्म होना चाहिये क्योंकि लोकतंत्र मे विचारों और विचारधाराओं का विरोध होना चाहिये, निषेध नहीं। और न ही निषेध होना चाहिये विरोधी विचारों और विचारधाराओं को मानने वालों का। ये लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ है। ऐसा तानाशाही में होता है। और हिंदुस्तान में तानाशाही नहीं है। इसलिये मोदी का कटु आलोचक होने के बाद भी मैंने कभी मोदी का बहिष्कार नहीं किया लेकिन राजनीति दूसरे तरह का खेल है

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गले में नोटों का अजगर


‘डैडी, क्या यह कोई सांप है?’, टीवी पर सुश्री मायावती के गले में नोटों की माला की तस्वीरें देखकर मेरे पांच साल के बेटे ने मुझसे पूछा। निश्चित ही वह समाज में मौजूद भौतिकवाद के इस प्रतीक पर कोई गहरी टिप्पणी नहीं कर रहा था। नोटों की वह माला वाकई किसी सांप सरीखी ही दिखाई दे रही थी।



एक अजगर, जो धीरे-धीरे अपने शिकार का दम घोंट देता है। जिस तरह से सुश्री मायावती एक मानव एटीएम बन गई थीं, उससे धनाढच्य भारतीयों द्वारा अपनी दौलत के प्रदर्शन की मिसालों में नया मुकाम जरूर बनेगा। पैसों का यह सांप तो खैर दूसरे स्तर पर था, लेकिन यह देखने लायक चीज है कि हमारे देश में अमीर लोग किस तरह शादियों और सालगिरहों की पार्टियां आयोजित करते हैं ताकि दुनिया को बता सकें कि ‘उनके पास पैसा है!’ पैसा होने का फायदा ही क्या, अगर आपके नाते-रिश्तेदारों, यार-दोस्तों, पड़ोसियों और यहां तक कि अजनबियों को भी इसके बारे में पता ही न चल सके?



मुंबई में कुतुब मीनार से भी ऊंचे एक कांक्रीट टॉवर का निर्माण चल रहा है। इसे कई किलोमीटर दूर से भी देखा जा सकेगा। यह एक व्यावसायिक घराने का आशियाना होगा। मैं जन्मदिन की एक ऐसी पार्टी के बारे में जानता हूं, जिसमें शामिल होने वाले सभी बच्चों को तोहफे के रूप में नाइकी के एयर स्नीकर दिए गए थे।



मैं खुद ऐसी बर्थ डे पार्टियों में शामिल हुआ हूं, जिनमें चार साल के बच्चों के लिए आदमकद सिंड्रेला के आवागमन के साधनों का बंदोबस्त किया गया था और फॉक्स फामरूला कार का रेसिंग ट्रैक बिछाया गया था। टीवी पर ‘द बिग फैट इंडियन वेडिंग’ नामक एक शो आता है, जिसमें अमीर घराने टीवी वालों को अपनी शादी की कवरेज करने की अनुमति देते हैं। मैं इस शो का केवल एक ही एपिसोड बर्दाश्त कर सका था।



शो में शादी के कार्यक्रम हफ्ते भर तक दिल्ली, राजस्थान और बाली में चलते रहे थे। इस दौरान पांच सौ मेहमान इधर से उधर होते रहे। लेकिन अंत में वही हुआ, जो सभी शादियों में होता है यानी एक लड़का और एक लड़की परिणय सूत्र में बंध गए। एक अन्य भारतीय शादी के बारे में इंटरनेशनल हेरॉल्ड ट्रिब्यून ने हाल ही में मुखपृष्ठ पर एक स्टोरी छापी। इस बार खबर नोएडा के एक गांव से थी। एक किसान ने अपनी जमीन बेच डाली और बेटे की शादी के लिए एक हेलीकॉप्टर किराए पर ले लिया।



ऐसे बरतावों की पैरवी में एक तर्क दिया जा सकता है। ये कहा जा सकता है कि यदि किसी ने पैसा बनाया है तो उसे यह अधिकार है कि वह उसका जैसा चाहे उपयोग करे। दरअसल हमें तो खुश होना चाहिए कि आखिरकार भारतीय पैसों के मामले में अपना संकोच तोड़ रहे हैं। फिर यदि कोई सुश्री मायावती को पैसों का अजगर या पैसों का हाथी ही भेंट करना चाहे तो भला इसमें दिक्कत क्या है?



तब भी किसी-न-किसी स्तर पर यह ठीक नहीं लगता। जब मैं अपने बच्चों को टीवी पर या किसी पार्टी में पैसों का अश्लील प्रदर्शन करते देखता हूं तो कहीं-न-कहीं मुझे बुरा लगता है, क्योंकि इससे मेरे बच्चे को यह संदेश जाता है कि सफल लोग यही सब करते हैं। जीवन का अर्थ यही है। मुझसे कड़ी मेहनत करने को इसीलिए कहा जाता है ताकि मैं पैसा बना सकूं, नोटों को अपने चेहरे से लगा सकूं और दुनिया को यह बताने के लिए पैसा फूंक सकूं कि मेरा भी कोई वजूद है।



धन के प्रदर्शन से विनम्रता, संवेदनशीलता और आत्मनियंत्रण जैसे मूल्यों की क्षति होती है। विजेतागण युवा पीढ़ी को प्रेरित करते हैं और यदि समाज के विजेतागण इसी हवाई अंदाज में जिएंगे तो बच्चे उसका भी अनुकरण करना चाहेंगे। पैसे के शोरगुल में समाज के अन्य लोगों जैसे शिक्षकों, ईमानदार पुलिस अधिकारियों और चिकित्सकों द्वारा किया गया योगदान बौना हो जाता है।



संभव है कि ये लोग इतने अमीर न हों, लेकिन इसके बावजूद वे बच्चों के लिए बेहतर रोल मॉडल हैं। इसी वजह से मैं देश के अमीरों से यह अनुरोध करना चाहूंगा कि वे अपने धन का प्रदर्शन न करें। शांत रहें। हमें मालूम है, आपके पास पैसा है। यदि आप वाकई हमें यह जताना चाहते हैं कि आपके पास कितना पैसा है तो इसके आंकड़े अपनी वेबसाइट पर डाल दें, लेकिन इस तरह तमाशा न बनाएं। आपने इतना पैसा बनाया, इससे हम प्रभावित हुए हैं। बहुत खूब। दस में दस अंक। शाबाश! लेकिन हमें साधारण ही बने रहने दीजिए।



हालांकि सभी अमीर लोग ऐसे नहीं होते। दुनिया के सबसे अमीर व्यक्तियों में से एक वॉरेन बफे, (जिनकी कुल संपत्ति २ लाख करोड़ रुपयों से भी अधिक है) अब भी ओमाहा के एक साधारण तिमंजिले कॉटेज में रहते हैं। अमेरिका में उनकी काफी इज्जत की जाती है। उन्हें अपने पैसों का प्रदर्शन करने की जरूरत नहीं। सिलिकॉन वैली में अपने दम पर अपना जीवन बनाने वाले सैकड़ों करोड़पति हैं, जो टी-शर्ट और जींस पहनकर काम करने जाते हैं और चमक-दमक वाली अमीरी को मुंह चिढ़ाते हैं। भद्दापन संपन्नता का जरूरी हिस्सा नहीं है। हालांकि शालीनता अमीर और रसूखदार भारतीयों के लिए अब भी एक नई चीज ही है, लेकिन फिर भी उसे अपनाया जा सकता है।



इसका यह मतलब नहीं कि अमीर विलासिता के साथ नहीं जी सकते। हालांकि निजी और सार्वजनिक विलासिता में एक अंतर होता है। यदि उन्हें ऐसा करके ही संतोष मिलता है तो वे अपने घर पर सोने की तश्तरियों में खाना खा सकते हैं और एवियन वॉटर से नहा सकते हैं। लेकिन यदि उनके धन का सार्वजनिक प्रदर्शन हो रहा हो तो ऐसा करने से पहले उन्हें दो बार सोचना चाहिए।



यदि सुश्री मायावती को नोटों की माला पहनकर आत्मिक खुशी मिलती है तो इस पर बहस करना मुश्किल है। वे हजार रुपए के नोटों से अपने कमरे का वॉलपेपर बना सकती हैं, लेकिन लाखों रुपयों की नोटों की माला पहनकर उन्हें भारत के बच्चों के सामने उसका प्रदर्शन नहीं करना चाहिए। उनके चाटुकार और वे लोग जो यह मानते हैं कि पैसा ही महानता का परिचायक है, इसके लिए जरूर उनकी सराहना कर सकते हैं। हालांकि यदि ज्यादा नहीं तो कुछ ऐसे भी होंगे, जो ऐसा न करें।



हम नहीं चाहते कि हमारे बच्चे ऐसे बरतावों का अनुकरण करें। हम चाहते हैं कि वे सच्चे नेताओं का अनुकरण करें। वे नेता, जो श्रेष्ठ मूल्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं, समाज का भला करते हैं और लोगों की मदद करते हैं। वे जो संयम, संतुलन और विनम्रता का प्रदर्शन करते हैं। ये वे लोग हैं, जिन्हें हम वास्तव में अमीर कह सकते हैं। वह वीभत्स माला पहनने से सुश्री मायावती अमीर नहीं हो गईं। ऐसा करके वे नोटों के बंडलों के बीच फंसी एक असहाय महिला ही साबित हुईं, जो किसी अजगर की तरह उनके राजनीतिक कॅरियर का दम घोंट सकता है। उम्मीद है कि वे इसकी जकड़न से मुक्त हो सकेंगी।



चेतन भगत
लेखक अंग्रेजी के प्रसिद्ध युवा उपन्यासकार हैं।


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यह लोहिया की सदी हो


जन्म शताब्दियां तो कई नेताओं की मन रही हैं, लेकिन प्रश्न यह है कि स्वतंत्र भारत में क्या राममनोहर लोहिया जैसा कोई और नेता हुआ है? इसमें शक नहीं कि पिछले 63 सालों में कई बड़े नेता हुए, कुछ बड़े प्रधानमंत्री भी हुए, लेकिन लोहिया ने जैसे देश हिलाया, किसी अन्य नेता ने नहीं हिलाया।



उन्हें कुल 57 साल का जीवन मिला, लेकिन इतने छोटे से जीवन में उन्होंने जितने चमत्कारी काम किए, किसने किए? जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी से लोहिया का अपने युवाकाल में कैसा आत्मीय संबंध था, यह सबको पता है। लेकिन यदि लोहिया नहीं होते तो क्या भारत का लोकतंत्र शुद्ध परिवारतंत्र में नहीं बदल जाता?



वे लोहिया ही थे, जो नेहरू की दो-टूक आलोचना करते थे। चीनी हमले के बाद लोहिया ने ही नेहरू सरकार को ‘राष्ट्रीय शर्म की सरकार’ कहा था। उन्होंने ही ‘तीन आने’ की बहस छेड़ी थी। यानी इस गरीब देश का प्रधानमंत्री खुद पर 25 हजार रुपए रोज खर्च करता है, जबकि आम आदमी ‘तीन आने रोज’ पर गुजारा करता है। लोहिया ने ही उस समय की अति प्रशंसित गुट-निरपेक्षता की विदेश नीति पर प्रश्नचिह्न् लगाए थे और नेहरूजी की ‘विश्वयारी’ पर तीखे व्यंग्य बाण चलाए थे।



उन्होंने सरकारी तंत्र के मुगलिया ठाठ-बाट की निंदा इतने कड़े शब्दों में की थी कि सारा तंत्र भर्राने लगा था। उन्होंने देश के हजारों नौजवानों में सरफरोशी का जोश भर दिया था। सारे देश में तरह-तरह के मुद्दों पर सिविल नाफरमानी के आंदोलन चला करते थे। राजनारायण, मधु लिमये, रवि राय, किशन पटनायक, एसएम जोशी, लाडली मोहन निगम, जॉर्ज फर्नाडीज जैसे कई छोटे-मोटे मसीहा लोहिया ने सारे देश में खड़े कर दिए थे। कहीं जेल भरो, कहीं रेल रोको, कहीं अंग्रेजी नामपट पोतो, कहीं जात तोड़ो, कहीं कच्छ बचाओ, कहीं भारत-पाक एका करो जैसे आंदोलन निरंतर चला करते थे।



लोहिया के आंदोलनों में अहिंसा का ऊंचा स्थान था, लेकिन वे वस्तु की हिंसा यानी तोड़-फोड़ को हिंसा नहीं मानते थे। उन्होंने प्राण की हिंसा करने वाली यानी प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने वाली अपनी ही केरल की सरकार को गिरवा दिया था। लोहिया ने भारत के नेताओं और राजनीतिक दलों को यह सिखाया कि सशक्त विपक्ष की भूमिका कैसे निभाई जाती है? लोकसभा में लोहियाजी की संसोपा के दर्जनभर सदस्य भी नहीं होते थे, लेकिन वहां बादशाहत संसोपा की ही चलती थी। जब लोहिया और मधु लिमये सदन में प्रवेश करते थे तो वह समां देखने लायक होता था। एक करंट-सा दौड़ जाता था। मंत्रिमंडल के सदस्य लगभग ‘अटेंशन’ की मुद्रा में आ जाते थे और स्वयं प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के चेहरे पर बेचैनी छा जाती थी।



दर्शक दीर्घा में बैठे लोग कहते सुने जाते थे, वो लो, डॉक्टर साहब आ गए। डॉक्टर लोहिया ने अपनी उपस्थिति से लोकसभा को राष्ट्र का लोकमंच बना दिया। जिस दबे-पिसे इंसान की आवाज सुनने वाला कोई नहीं होता, उसकी आवाज को हजार गुना ताकतवर बनाकर सारे देश में गुंजाने का काम डॉ लोहिया करते। कोई मामूली मजदूर हो, कोई सफाई कामगार हो, कोई भिखारी या भिखारिन हो- डॉ लोहिया उसे न्याय दिलाने के लिए अकेले ही संसद को हिला देते थे। लोकसभा अध्यक्ष सरदार हुकुम सिंह कई बार बिल्कुल पस्त हो जाते थे। मई 1966 में जब डॉ लोहिया ने मेरा अंतरराष्ट्रीय राजनीति का पीएचडी का शोध-प्रबंध हिंदी में लिखने का मामला उठाया तो इतना जबर्दस्त हंगामा हुआ कि सदन में मार्शल को बुलाना पड़ा। डॉ लोहिया और उनके शिष्यों के तर्क इतने प्रबल थे कि सभी दलों के प्रमुख नेताओं ने मेरा समर्थन किया। इंदिराजी के हस्तक्षेप पर स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज ने अपना संविधान बदला और मुझे यानी प्रत्येक भारतीय को पहली बार स्वभाषा के माध्यम से ‘डॉक्टरेट’ करने का अधिकार मिला।



डॉ लोहिया के व्यक्तित्व में चुंबकीय आकर्षण था। वे देखने में सुंदर नहीं थे। उनका कद छोटा और रंग सांवला था। उनके खिचड़ी बाल प्राय: अस्त-व्यस्त रहते थे। उनके खादी के कपड़े साफ-सुथरे होते थे, लेकिन उनमें नेहरू या जगजीवनराम या सत्यनारायण सिंह जैसी चमक-दमक नहीं रहती थी। वे सादगी और सच्चई की प्रतिमूर्ति थे। वे जिस विषय पर भी बोलते थे, उसमें मौलिकता और निर्भीकता होती थी। वे सीता-सावित्री पर बोलें, शिव-पार्वती पर बोलें, हिंदू-मुसलमान या नर-नारी समता पर बोलें, अंग्रेजी हटाओ या जात तोड़ो पर बोलें- उनके तर्क प्राणलेवा होते थे। जो एक बार डॉ लोहिया को सुन ले या उनको पढ़ ले, वह उनका मुरीद हो जाता था।



डॉ लोहिया ने अपने भाषण और लेखन में जितने विविध विषयों पर बहस चलाई है, देश के किसी अन्य राजनेता ने नहीं चलाई। सिर्फ डॉ भीमराव आंबेडकर और विनायक दामोदर सावरकर ही ऐसे दो अन्य विचारशील नेता दिखाई पड़ते हैं, जो डॉ लोहिया की श्रेणी में रखे जा सकते हैं। डॉ लोहिया ने जर्मनी से डॉक्टरेट की थी। इस खोजी वृत्ति के कारण वे हर समस्या की जड़ में पहुंचने की कोशिश करते थे। सप्रू हाउस में उस समय रिसर्च कर रहे डॉ परिमल कुमार दास, प्रो कृष्णनाथ और मेरे जैसे कई नौजवान उनके अवैतनिक सिपाही थे। इसी का परिणाम था कि 1967 में डॉ लोहिया देश में गैर कांग्रेसवाद की लहर उठाने में सफल हुए। जनसंघियों और कम्युनिस्टों ने भी उनका साथ दिया और देश के अनेक प्रांतों में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं। यदि डॉक्टर लोहिया 10-15 साल और जीवित रहते तो उन्हें प्रधानमंत्री बनने से कौन रोक सकता था? अब से 30-35 साल पहले ही भारत का चमत्कारी रूपांतरण शुरू हो जाता और अब तक वह दुनिया की ऐसी अनूठी महाशक्ति बन जाता, जिसका जोड़ इतिहास में कहीं नहीं मिलता।



जो भी हो, डॉ लोहिया असमय चले गए हों, लेकिन उनके विचार इस इक्कीसवीं सदी के प्रकाश-स्तंभ की तरह हैं। सप्त-क्रांति का उनका सपना अभी भी अधूरा है। जाति-भेद, रंग-भेद, लिंग-भेद, वर्ग-भेद, भाषा-भेद और शस्त्र-भेद रहित समाज का निर्माण करने वाले नेता अब ढूंढ़ने से भी नहीं मिलते। इस समय सभी दल चुनाव की मशीन बन गए हैं। वे सत्ता और पत्ता के दीवाने हैं। यदि डॉ लोहिया का साहित्य व्यापक पैमाने पर पढ़ा जाए तो आशा बंधेगी कि शायद आदर्शवादी नौजवानों की कोई ऐसी लहर उठ जाए, जो इस भारत को नए भारत में और इस दुनिया को नई दुनिया में बदल दे। लोहिया को गए अभी सिर्फ 43 साल ही हुए हैं। उनका शरीर गया है, विचार नहीं, विचार अमर हैं। विचारों को परवान चढ़ने में कई बार सदियों का समय लगता है। अभी तो सिर्फ पहली सदी बीती है। हम अपना धैर्य क्यों खोएं? क्या मालूम आने वाली सदी लोहिया की सदी हो?

लेखक प्रसिद्ध राजनीतिक चिंतक हैं।

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भारत की हर उठती समस्या का कारण है हमारा पल पल बदलता नजरिया


{कोपल श्रीवास्तव }

सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तान हमारा" ये बोल जब हमारे कानों में पड़ते हैं तो हमारा रोम रोम भारतीय होने के गौरव से महक उठता है। पर अफ़सोस की बात ये है की अपने भारतीय होने पर गर्व करने के लिए हमें प्रेरित होने के लिए फिल्मों या प्रेरणा से भरी हुई देशभक्ति कविताओं की ज़रूरत पड़ती है. आज देश की हालत के लिए हम चाहे किसी को भी जिम्मेदार ठहरा दें, पर हमारा अंतर्मन इस बात को स्वीकारता है की हम अपने देश की आत्मा से कहीं दूर निकल गए है. इस तरह अपनी मात्रभूमि के एहसास से दूर होने की वजह कुछ भी हो, परन्तु ये एक कड़वा सत्य है कि, हमारे पास अपने देश कि हालत के लिए समाज, नेताओं व आतंकवाद को दोष देने के लिए वक़्त है, परन्तु आत्मीयता से अपने राष्ट्र कि समस्याओं को सुलझाने के बारे में सोचने का कहीं किसी के पास वक़्त नहीं है





हमारा देश हर तरफ से समस्याओं से घिरा हुआ है, ये समस्याएं आर्थिक भी है और सामाजिक भी. राजनितिक मुद्दे तो हर समस्या का आधार ही बन कर रह गए हैं. परन्तु मेरी नज़र में भारत की सबसे बड़ी समस्या भारतीयों का अपने देश के सन्दर्भ लापरवाही से भरा हुआ नजरिया है. हर कोई भ्रष्टाचार की धूनी रमा रहा है, तो कोई विदेशों की महिमा के गीत गा रहा है, युवाओं को नशे में धुत्त रहने और रटे-रटाये रस्ते पर चलने के आलावा कोई काम ही नहीं है.
आज हर भारतवासी, भारतीय होने से पहले मराठी, पंजाबी और हरयाणवी हो गया है. सरहदों पर लकीरें खींचने में फिरंगी कामयाब रहे और अब घर के आँगन में लकीर खींचने के लिए मतलबी राजनीतिज्ञ तत्पर हैं. हम क्या कर रहे हैं....युवा वर्ग होने के नाते अपने राष्ट्र के लिए लाखों जिम्मेदारियां बनती हैं, पर हमारे पास अपनी बेनाम ज़िन्दगी जीने के आलावा कोई काम ही नहीं है.
आज अगर सवाल ये उठाया जाता है की भारत के सामने सब से बड़ी समस्या क्या है तो सब अपना मत रखना शुरू करेंगे और ये तय है की निम्नलिखित समस्याओं के अलावा कोई समस्या नहीं लिख पाएंगे...
भ्रष्टाचार
सामाजिक समस्याएं
आर्थिक समस्याएं
राजनितिक समस्याएं
आतंकवाद
धार्मिक समस्याएं.
परन्तु मैं यहाँ पे सिर्फ ये मुद्दा उठाना चाहती हूँ कि, ये समस्याएं सिर्फ उस अमर बेल कि शाखाएं मात्र हैं जो हमारे देश को दिन रात ख़त्म करने में अग्रसर है. हमें इसकी जड़ तक जाना चाहिए और इस अमरबेल कि जड़ कुछ और है. यानि सब समस्याओं का आधार कुछ और है . और वो आधार है हमारा सोचने का नजरिया और हमारे दिलों से पल पल मिटती भारतीयता.
अब फैसला हमारा है. हमें तय करना है कि हमें हमारी जिम्मेदारियां कैसे निभानी है या हमेशा कि तरह आँखें मूँद कर चलते रहना है.
जय हिंद.
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रिलायंस फ्रेश की बदौलत बढ़ी है देश में महंगाई


{कुलदीप शर्मा}

आम आदमी का जीना मुहाल कर देने वाली महंगाई पर तरह-तरह के विश्लेषण किए गए हैं लेकिन किसी ने भी यह जहमत उठाने की कोशिश नहीं की है कि आखिर हमारे देश में प्रचुर उत्पादन के बावजूद एकाएक शक्कर के साथ अन्य सभी खाद्य पदार्थों की कीमतों में क्यों बढ़ोत्री हुई है। कुछ दिन पहले जब रिलायंस फ्रेश के सर्वेसर्वा मुकेश अंबानी ने यह घोषणा की कि उनकी कंपनी जल्द ही दूध का कारोबार भी शुरू करेगी. तब माथा ठनका और महंगाई बढ़ने का कारण समझ में आने लगा। मुकेश की इस घोषणा के एक-दो दिन बाद ही कृषि मंत्री की तरफ से यह बयान आ गया कि उत्तर भारतीय इलाकों में दूध के उत्पादन में कमी हुई है लिहाजा कभी भी दूध के दाम बढ़ सकते हैं। कृषि मंत्री का यह बयान देना था कि अचानक शक्कर लॉबी की तरह मजबूत होती जा रही दूध लॉबी ने भी दामों को बढ़ा दिया और आम आदमी मन मसोसकर रह गया। वह बेचारा कर ही क्या सकता है सिर्फ सरकार के साथ अपने भाग्य को कोसने के।अभी से करीब 3 साल पहले तक मौसम की मार से या किसी प्राकृतिक आपदा की बदौलत देश में किसी एकाध कृषि उपभोक्ता वस्तु की कीमतों में बढ़ोतरी हो जाया करती थी, मसलन कभी प्याज तो कभी आलू या फिर कोई भी दाल-दलहन। ऐसा कोई उदाहरण देखने को नहीं मिलता कि मौसम अथवा प्राकृतिक आपदा के कारण सभी खाद्य पदार्थों की उपलब्धता प्रभावित हुई हो, लेकिन बीते 3 वर्षों में देश में पैदा होने वाली लगभग सभी कृषि जीन्सों की भरपूर पैदावार होने के बावजूद फसल आने के समय भी दामों में किसी प्रकार की कमी दिखाई नहीं दे रही है। यदि कभी-कभार ऐसी स्थिति बनती भी है तो कृषि मंत्री यह बयान देकर पूरी कर देते हैं कि मौसम की मार से कृषि उत्पादन प्रभावित हुआ है और दामों में बढ़ोत्री होना संभव है। उनका यह बयान देना होता है कि बाजार से एकाएक उस कृषि जीन्स की मांग बढ़ जाती है और कल तक जो सर्व-सुलभ वस्तु थी, वह गायब हो जाती है। इस बात के लिए कृषि मंत्री को चुनौती दी जा सकती है कि वे बताएं कि कौन से वर्ष में कृषि आधारित सभी फसलों की कमी की वजह से हर उत्पाद के दामों में दो गुनी तक वृद्धि हुई थी। यदि वे इसका संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाते हैं तो यही माना जाना चाहिए कि उन्होंने इरादतन किसी उद्योग घराने को लाभ पहुंचाने की खातिर और देश की जनता को गुमराह करने के उद्देश्य से ऐसे बयान देकर आम आदमी को महंगाई की आग में झोंका है। लोकतंत्र के चौथे महत्वपूर्ण स्तंभ कहे जाने वाले आत्ममुग्ध मीडिया के किसी भी संस्करण (प्रिंट अथवा इलेक्ट्रानिक) ने इस बात के लिए कृषि मंत्री से सवाल तक करना जरूरी समझा है कि आखिर कौन से कारण रहे हैं जिनकी बदौलत लगातार तीन साल से सरकार और खासकर कृषि मंत्री महंगाई थामने में विफल रहे हैं। कृषि मंत्री का यह कह देना पर्याप्त नहीं माना जा सकता और न ही वे अपनी जिम्मेदारी से यह कहकर बच सकते हैं कि सभी फैसले कैबिनेट की सहमति से होते हैं इसलिए महंगाई के लिए अकेले उन्हें जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। वैसे उनके बयान का मतलब यह भी निकलता है कि सरकार के सभी नुमाइंदों की जनता को गुमराह करने में शामिल हैं।गौरतलब है कि 30 सितंबर 2006 को मुकेश अंबानी ने यह घोषणा की कि वे अपने परंपरागत उद्योग-धंधों के साथ अब देश में मौजूद विषाल खुदरा बाजार में तेल-गुड़ के साथ फल-सब्जी भी बेचना शुरू करेंगे। खुदरा बाजार पर अपनी पकड़ बनाने के लिए उन्होंने 4 साल के अंदर 25 हजार करोड़ रुपए निवेश करने की योजना बनाई थी। यदि इस निवेश को आसान शब्दों में समझाना हो तो इसका मतलब यह निकलता है कि हर भारतीय पर कम से कम 22 सौ रुपए का निवेश किया। इस योजना के मुताबिक देश के 14 प्रदेशों के खास 80 शहरों में 50 लाख उपभोक्ताओं को उचित गुणवत्ता का खाद्य सामान उपलब्ध करवाने के लिए 900 से अधिक स्टोर खोले जाने का लक्ष्य था। उनके द्वारा निर्धारित समय की सीमा पूर्ण होने में अभी तकरीबन 6 माह का समय और बचा है. लेकिन इन साढ़े तीन सालों में महंगाई ने अपना असली रूप दिखा दिया है और देश की तकरीबन 20 फीसदी आबादी को दाने-दाने के लिए सोचने पर मजबूर कर दिया है। केवल 50 लाख लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिए रिलायंस फ्रेश के इस व्यापार में कूद जाने से अब हालात कितने भयावह हो गए हैं। यहां यह बताना गैरजरूरी नहीं है कि वर्ष 2006-07 में मुंबई की प्रति व्यक्ति आय 65 हजार 361 रुपए थी, जो देश की औसत प्रति व्यक्ति आय 29 हजार 382 रुपए के मुकाबले दोगुनी होती है। देश में सबसे अधिक प्रति व्यक्ति आय होने के बावजूद अकेले मुंबई की दस फीसदी आबादी (करीब 10 लाख लोग) की आय 20 रुपए प्रतिदिन भी नहीं, बल्कि केवल 591.75 पैसे ही है। ऐसे परिवारों के पास टीवी, फ्रिज, पंखा तो दूर की बात है घरों शौचालय, पानी की आपूर्ति का स्रोत अथवा अपना वाहन तक की कोई सुविधा नहीं है। ऐसे में देश के केवल 50 लाख लोगों को सुविधाएं देने नाम पर 25 हजार करोड़ रुपए के निवेश के जरिए आम आदमी को महंगाई की भट्टी में झोंक देने को क्या कहा जाएगा।मेरे दूध लॉबी की अवधारणा से अनेक को आपत्ति हो सकती है, लेकिन जिस तरह से दूध का धंधा शहरों और कस्बों में फैला है और जिस तरह से शासन-प्रशासन उनके सामने घुटने टेकने को मजबूर रहता है, उससे इस लॉबी की विशालता पता चलता है। दोपहिया वाहन पर जिस तरह से दूध की कम से कम दो बड़ी-बड़ी टंकियां (अधिकतम की 4 से 6 तक) लादकर जिस तरह भीड़ भरे ट्राफिक में से गुजर कर इस लॉबी के कर्ता-धर्ता अपने काम को बेखौफ हो अंजाम देते हैं, उस देखकर ऐसा लगता ही नहीं कि शहर-कस्बे में यातायात पुलिस प्रशासन नाम की कोई व्यवस्था भी है। ऐसा भी नहीं है कि ये नजारे केवल छोटे-मोटे कस्बे अथवा शहर के हों, कमोबेश पूरे हिन्दुस्तान में इन नजारों को देखा और महसूस किया जा सकता है। क्या यातायात नियमों में दोपहिया वाहन पर दूध की टंकियां लादने को छूट दी गई है? मीडिया में बेकाबू होती महंगाई पर खूब लिखा जा चुका है, लेकिन खास बात यह है कि किसी ने भी इसका विश्लेषण करने की जहमत नहीं उठाई है कि आखिर ऐसा क्या हो गया जिसने अर्थशास्त्र के सिद्धांतों तक को दरकिनार कर दिया है। अर्थशास्त्र के सामान्य सिद्धांत के अनुसार बाजार में मांग और धन का प्रवाह बढ़ने पर मुद्रास्फीति की दर के साथ महंगाई में भी बढ़ोत्री होती है लेकिन कुछ माह पहले (गत वर्ष जून में) तक तो मुद्रास्फीति की दर ऋणात्मक थी, बावजूद इसके बाजार में न सिर्फ कृषि उत्पाद मसलन दाल, चावल, शक्कर और अनाज की कीमत में कोई कमी दिखी। दिलचस्प बात यह है कि इससे पहले मुद्रास्फीति की ऋणात्मक दर वर्ष 1978 के आसपास हुई थी और उस समय शक्कर सहित अन्य सभी कृषि आधारित वस्तुओं की कीमतें बेहद कम हो गई थी। आपातकाल के दौरान भी शक्कर की कीमत काफी बढ़ी हुई थी और राशन दुकानों पर कम कीमत पर शक्कर उपलब्ध कराई जाती थी। उस समय (वर्ष 1978) ऋणात्मक मुद्रास्फीति ने शक्कर की कीमतों को राशन दुकान पर उपलब्ध कीमत से भी कम पर ला दिया था लेकिन इस बार की ऋणात्मक मुद्रास्फीति ने ऐसा कोई कारनामा अंजाम नहीं दिया उल्टे सभी वस्तुओं के दाम स्थिर ही बने रहे। मतलब यह कि मतलब यह कि जिस तेजी से कृषि उत्पादों की कीमतें बढ़ रही थी, केवल उनका बढ़ना भर रुका था। इसका कारण साफ था कि यह सब जमाखोरी के चलते संभव हो पाया था और आज भी सरकार इस पर अंकुश लगा पाने में पूरी तरह नाकामयाब ही दिखती है वह केवल लोगों को यह बयान देकर अपने कर्तव्य को पूरा करने में लगी है कि सरकार द्वारा महंगाई को रोकने के लिए प्रभावी कदम उठाए जा रहे हैं जल्द ही लोगों को महंगाई से निजात मिलेगी लेकिन ठोस उपाय करने के नाम पर मौद्रिक नीति में थोड़ा उलटफेर कर दिया जाता है।महंगाई के मुद्दे पर सभी दलों की खामोशी ने यह सोचने के लिए मजबूर कर दिया है कि शासन करने की मौजूदा नीति केवल उद्योगपतियों के साथ नेताओं और अफसरों के लिए ही फायदेमंद साबित हो रही है, आम आदमी तो बस जल्द ही अपने गरीबी की रेखा में आने का इंतजार कर रहा है और तैसे-तैसे अपने दिन गुजारने को मजबूर है. मौजूदा महंगाई में सामान्य आदमी अपना गुजारा कैसे चला पा रहा है, यह उससे बेहतर और कोई नहीं जान सकता है और शासन-प्रशासन ने जनता को तो भगवान भरोसे छोड़ दिया गया है.
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